शनिवार, 12 नवंबर 2011

क्या यही राजनीति है?

>मध्य प्रदेश राज्य के ग्वालियर/भोपाल से सामने एक समाचार के मुताबिक नगर निगम द्वारा आयोजित एक शिलान्यास समारोह में मंच पर बैठने को लेकर हुए विवाद के बाद भाजपा और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच जमकर पथराव हुआ. दोनों पक्षों के 35 कार्यकर्ता घायल हो गए, जिनमें से 6 की हालत गंभीर बताई गई है. ऐसे समाचार किसी भी चिंतनशील नागरिक को सोचने पर विवश कर देते हैं कि क्या यही राजनीति है. अगर यही राजनीति है तो खेदजनक है. आखिर ऐसे नेता व् कार्यकर्ता किस तरह की राजनीति कर रहे हैं और किन लोगों की खातिर राजनीति कर रहे हैं.
>अब ये कोई लुकी-छिपी बात नहीं रही कि अधिकतर राजनेताओं व् कार्यकर्तायों का चरित्र गिर चुका है. सत्ता प्राप्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं. ऐसे राजनीतिज्ञों से आम जनता क्या उम्मीद रख सकती है. अब लोग राजनीति में सेवा भावना के साथ नहीं आते. राजनीति में आने का मुख्या कारण सत्ता प्राप्ति व् धन का लालच है. सत्ता में आकर राजनीतिज्ञ क्या कुछ नहीं करते इस की ताज़ा मिसाल राजस्थान का चर्चित भंवरी काण्ड है.
>अगर राजनितिक पार्टियों के नेता व् कार्यकर्ता छोटी-छोटी बात पर हिंसा पर उतारू हो जायेंगे तो आम जनता का क्या होगा?
>आज देश में इंजीनियरिंग, मेडिकल या अन्य किसी भी अन्य पेशे में प्रैक्टिस के लिए डिग्री लेना जरूरी है. लेकिन, राजनीति में ऐसा नहीं है. भला ऐसा क्यों हो रहा है? होना तो ये चाहिए कि सभी राजनितिक पदों के लिए न्यूनतम शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए. राजनीति में काम करने लिए अधिकतम आयु सीमा होनी चाहिए. आज ऐसा नहीं है. राजनीति में कई ऐसे लोग हैं जो शिक्षित नहीं हैं. कब्र में पाँव होने के बावजूद सत्ता का मोह नहीं छोड़ते. इसी वजह से आज देश की हालत बाद से बदतर होती जा रही है. जिस व्यक्ति ने दस जमातें भी पास नहीं की होतीं, राजनीति में आकर आई.ए.एस/ आई.पी.एस. अधिकारियों पर शासन करता हैं. अधिकारीयों को जायज व् नाजायज काम करने के लिए मजबूर करता है. अगर कोई अधिकारी नेता के विरुद्ध कुछ कहने का दुस्साहस दिखता है तो उसे दिमागी तौर पर बीमार करार दे दिया जाता है.
>अंत में?
>क्या राजनितिक पदों के लिए न्यूनतम शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए? साथ ही क्या राजनीति में अधिकतम आयु सीमा होनी चाहिए?

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

योग का चमत्कार?

>इस में कोई दो राय नहीं की योग में बहुत शक्ति है. योग एक चमत्कार है. योग की शिक्षा देने वाले इस देश में पहले भी हुए हैं. लेकिन, योग का प्रचार-प्रसार आज के युग में जितना बाबा रामदेव ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. उन्होंने योग को घर-घर में पहुंचा दिया है.
>इन दिनों बाबा रामदेव पंजाब के दौरे पर हैं. शुक्रवार को योग गुरु ने पंजाब के मोगा में भारतीय कबड्डी टीम के खिलाड़ियों के साथ कबड्डी खेल कर सभी को हैरान-परेशान कर दिया. लगभग दस मिनट तक उन्होंने खिलाड़ियों को जमकर छकाया. इस अंतराल में एक भी खिलाड़ी उन्हें छू तक नहीं पाया. दूसरी ओर उन्होंने "कबड्डी-कबड्डी" कहते हुए चारों खिलाड़ियों को मैदान से बाहर का रास्ता दिखा दिया। खिलाड़ियों के पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके दम का राज योग ही है. उन्होंने बताया कि कबड्डी सांस को साधने का खेल है और लगातार कपाल भाती, अनुलोम विलोम व् अन्य प्राणायाम के साथ योग करते रहने से सांस को बेहतर ढंग से साधा जा सकता है.
>यहाँ जिक्रयोग्य है कि इन दिनों पंजाब में मोगा के ढुढीके में विश्व कबड्डी कप का आयोजन चल रहा है.
>जो कुछ बाबा रामदेव कर रहे हैं, उसे नकारा नहीं जा सकता. कुछ लोग उनकी ऐसी हरकतों को नाटकबाजी भी कह सकते हैं ताकि मीडिया में बनें रहें. लेकिन, उनकी बातों से बहुत से लोग प्रभावित भी हो रहे हैं. इसी प्रभाव के चलते सुबह जल्दी बिस्तर से उठने लगे हैं, नियमित तौर पर कपाल भाती, अनुलोम विलोम व् अन्य प्राणायाम करने लगे हैं. यहाँ तक कि अपना खान-पान भी बदलने लगे हैं. जो काम आज ताज देश की सरकारें नहीं कर सकीं, वह बाबा रामदेव कर रहे हैं. अगर बाबा रामदेव देश की जनता को स्वस्थ्य के प्रति जागरूक करने में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं तो देश के नेता और सरकारें उन्हें कब तक नज़रअंदाज कर सकती हैं.
>देश व् राज्य की सरकारों को भी चाहिए कि वे योग को भी स्कूलों और कालेजों के पाठ्यक्रम में शामिल करे. योग को केवल पाठ्यक्रम में शामिल ही ना किया जाये बल्कि अहम विषय के तौर पर शामिल किया जाये. जब युवाओं का मन और तन स्वस्थ होगा तो वे अवश्य ही अच्छे नागरिक बनेंगे. इससे लोगों में अपराधिक प्रवृति भी कम होगी. साथ ही उनकी विचार शक्ति भी मजबूत और सकारात्मक होगी. देश में योग पर खोज केंद्र भी स्थापित किये जा सकते हैं. योग के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं. जरूरत है तो बस इन संभावनाओं को कैश कर लेने की.
>अंत में;
>देश में योग को प्रफुल्लित करने के लिए केंद्र व् राज्य सरकारों की क्या जिम्मेवारी बनती है?

बुधवार, 2 नवंबर 2011

अगर ऐसा हो जाये?

>एक अच्छी खबर है कि पंजाब की लवली प्रोफैशनल यूनिवर्सिटी (एलपीयू) के कम्युनिटी सर्विस सेल द्वारा दस एनएसएस यूनिट्स का गठन किया गया. इन यूनिट्स के अंतर्गत 2 ,000 से अधिक छात्रों ने स्वेच्छापूर्वक स्वयं को रजिस्टर्ड करवाया है. हर स्वयंसेवक दो वर्षों में 240 घंटे सामुदायिक कार्यों को देंगे. अंततः छात्रों में अनुशासन पैदा होगा और उनका बेहतर चरित्र निर्माण होगा. इसके अतिरिक्त छात्रों का स्वस्थ्य बेहतर होगा और वे देश की संस्कृति को अच्छे ढंग से समझ सकेंगे.
>एलपीयू के डायरेक्टर-जनरल एच. आर. सिंगला का कहना है कि एनएसएस यूनिट्स का गठन इसलिए किया गया है ताकि आज के युवा समाज सेवा कर सकें और कुछ बेहतर सीख सकें. उनका ये भी मानना है कि ऐसी गतिविधिओं से युवा ना केवल अपनी बेहतरी कर सकेंगे बल्कि देश के विकास में भी अहम भूमिका अदा कर पाएंगे.
>सबसे दिलचस्प पहलू तो ये है कि यूनिवर्सिटी की जिन छात्र-छात्राओं ने स्वयं को एनएसएस यूनिट्स के लिए रजिस्टर्ड करवाया है, उनके विचार उच्च दर्जे के हैं. मधु ओबेरॉय, संतोष, गुरजीत राणा, सामुएल, आबिद, रुखसाना, जतिंदर व् अन्य छात्र-छात्राओं का कहना है कि इस पहल से उन्हें समाज के प्रति भागीदारी, सेवा और उपलब्धियों को विकसित करने का मौका मिला है.
>आज देश भर के युवाओं में मधु ओबेरॉय, संतोष और उनके अन्य साथियों जैसा जज्बा पैदा करने की आवश्यकता है जबकि देश के युवाओं की अच्छी खासी संख्या भटकाव के मोड़ पर है. भटकाव की इस स्थिति में युवाओं को कोई सही राह दिखानेवाला नहीं मिल रहा है. आज देश के अधिकतर युवा पश्चिम की सभ्यता का आँखें मूँद कर अनुसरण कर रहे हैं, अपने बड़े-बुजुर्गों की इज्ज़त करना भूल चुके हैं. ऐसी बात नहीं है कि युवाओं को दूसरों का अनुसरण नहीं करना चाहिए. वे ऐसा जरूर करें. मगर, थोडा सोच-समझ कर. ऐसा ना हो कि भविष्य में उन्हें पछताना पड़े.
>आजकल हम लोग छोटी-छोटी बात के लिए सरकार का मूंह ताकते हैं. युवाओं की स्थिति बदले, इसके लिए भी सरकार की तरफ ही देख रहे हैं. स्वयं कुछ नहीं कर रहे. वैसे युवाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए सबसे बड़ी जिम्मेवारी ना केवल माता-पिता की बनती है, बल्कि शैक्षणिक संस्थायों की भी बनती है. शैक्षणिक संस्थायों को चाहिए की वे कुछ एक छात्र-छात्राओं को ही कम्युनिटी सर्विस के लिए ना चुनें. संस्था के सभी छात्र-छात्राओं को इसका अवसर दें. अगर ऐसा हो जाता है तो देश में एक दिन नयी क्रांति आ सकती है जिसकी किसी ने कल्पना भी ना की होगी.
>अंत में:
>क्या किसी भी शैक्षणिक संस्था में सभी छात्र-छात्राओं को कम्युनिटी सर्विस का अवसर दिया जाना चाहिए?

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

सड़क दुर्घटनाएं क्यों?

>आए दिन समाचारपत्रों में सड़क दुर्घटनाओं की दु:खद ख़बरें प्रकाशित होती हैं. हम सभी एक नजर डाल कर खबर पढ़ते हैं, कुछ देर बाद सब कुछ भूल जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही ना हो. लेकिन, वास्तविकता ये है
कि हालात बेहद चिंताजनक हैं. प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक पंजाब में हर साल करीब चार हजार लोग सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं और करीब 16 लोग हर रोज घायल हो रहे हैं. वर्ष 2010 में राज्य में कुल 6 ,641 सड़क हादसे हुए. इनमें 3 ,424 लोगों की मौत हुई तो 5,854 लोग घायल हुए हैं. राज्य के अकेले लुधियाना शहर की स्थिति अति गंभीर है. यहां साल 2010 में 222 सड़क दुर्घटनाओं में 227 लोगों की मौत हुई.
>आखिर ऐसा क्या है कि सड़क दुर्घटनाएं रुक नहीं पा रहीं. इस के पीछे कई कारण हो सकते हैं. असल बात तो ये है कि आज की भागमभाग जिंदगी में हर कोई जल्दी में है. लोगों के पास समय कम है और काम ज्यादा. जैसे - जैसे आईटी का प्रसार हो रहा है, जिंदगी की गति तेज और तेज होती जा रही है. देखने में लगता है कि हमें सुख - सुविधाएँ मिल रही है. मगर ऐसा वास्तव में है नहीं. मोबाइल हो या इन्टरनेट, या फिर कोई और नया उपकरण, इस से काम कि जिम्मेवारी बढ़ती ही है, कम नहीं होती. यही वजह है कि हम में से हर कोई तेजी में है. हर व्यक्ति वक़्त को थाम लेना चाहता है. इसी जल्दबाजी का नतीजा अक्सर ये होता है कि हम में से ही कई लोग सड़क पर दुर्घटना का शिकार बन जाते हैं.
>सड़क दुर्घटनाओं के पीछे मदिरा या अन्य नशे भी एक कारण हैं. नशे की लत की वजह से इंसान खुद तो मौत के मुंह में जाता ही है, अपने पारिवारिक सदस्यों का जीवन भी खतरे में डाल देता है. कई बार दुर्घटना स्वयं घट जाती है. इस के पीछे घटिया ऑटो पार्ट्स होते हैं जो कि जाली होते हैं.
>अक्सर देखने में आता है कि युवा वाहनों पर बैठ कर मटरगश्ती करते हैं. सड़क को अपने बाप की जागीर समझ कर यहाँ-वहां तेज रफ्तारी से घूमते हैं. और फिर, दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं.
>बहुत बार ऐसा भी होता है कि सडकों की खस्ता हालत की वजह से दुर्घटनाएं हो जाती हैं. कई बार सरकारी करमचारियों की लापरवाही भी इस की वजह बन जाती है. मसलन, कई बार अँधेरे में चालक दुर्घटना का शिकार बन जाते हैं क्योंकि मैनहोल बिना ढक्कन के होता है.
>अगर हम सभी स्वयं पर नियंत्रण रखे तो काफी हद तक दुर्घटनाएं रुक सकती हैं. सरकार अपनी तरफ से तो काफी कुछ कर ही रही है, हमें भी सावधानी की आवश्यकता है.
>अंत में:
>सड़क दुर्घटनाओं को रोकने में हमारी क्या भूमिका हो सकती है?

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

औरतों पर अत्याचार क्यों?

>यकीनन ये खबर दुरुस्त है कि इस्लामाबाद (पाकिस्तान) के पंजाब प्रांत में एक आदमी ने अपनी पत्नी की नाक और होठ सिर्फ इसलिए काट दिए क्योंकि उसने एक शादी समारोह में नृत्य करने से मना कर दिया. वेहरी कस्बे के निवासी मोहम्मद अब्बास ने पत्नी गुलशन बीबी से एक शादी समारोह में नृत्य करने के लिए कह रहा था. पीड़िता के मना करने पर अब्बास गुस्से में आ गया और उसने गुलशन की नाक और होठ काट दिए. गुलशन को गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया है.  पुलिस ने अब्बास को गिरफ्तार कर लिया है.
>तरक्की के इस दौर में भी ऐसी ख़बरें पढने - सुनने को मिल रही हैं, ये बेहद खेदजनक बात है. आखिर गुलशन बीबी का क्या कसूर था कि उसका चेहरा बदसूरत कर दिया गया. क्या उसका कसूर इतना था कि वह औरतजात थी. किसी भी औरत का सबसे बड़ा गहना उसका खूबसूरत चेहरा होता है, जिसे  अब्बास ने अपनी बीवी (कहने भर को) से छीन लिया. अगर वास्तव में वह गुलशन बीबी को अपनी जीवन संगिनी समझता तो ऐसा कुकृत्य कभी ना करता.
>क्या किसी भी समाज में मर्दों को ही सभी हक हासिल हैं? क्या औरतों का कोई हक नहीं? क्या उनके मन में इच्छाएं नहीं होतीं? अगर गुलशन बीबी ने शादी समारोह में नृत्य करने से मना कर दिया
तो इस से कौन सा आसमान टूट पड़ा था. बात दरअसल अहम की है. आखिर एक औरत की इतनी हिम्मत कैसे हो गयी कि अपने मर्द के "आदेश" को अनदेखा कर दिया.....शायद, अब्बास ने यही सोचा होगा. बड़े अफ़सोस कि बात है कि आज भी कुछ लोग औरत को "गुलाम" से कमतर नहीं समझते. एक ऐसा "गुलाम" जिसे अपने "मालिक" का हर "हुक्म" मानना पड़ता है. बेशक "हुक्म" वाजिब हो या ना हो. 
>क्या अब्बास कभी गुलशन बीबी के चेहरे की खूबसूरती को लौटा सकेगा. इस "दुर्घटना" से गुलशन बीबी  के दिल में जो "गहरे घाव" पैदा हुए हैं क्या उन्हें कभी भरा जा सकता है. जवाब शायद ना में ही होगा. 
>अंत में;
>औरतों पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए समाज क्या भूमिका निभा सकता है?     

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

गद्दाफी की मौत पर उठ रहे सवाल?


>लीबिया के सैन्य तानाशाह कर्नल मुअम्मार गद्दाफी की हत्‍या को लेकर सवाल उठने शुरू हो गए हैं. जी हाँ, श्रीलंका ने लीबिया के पूर्व शासक मुअम्‍मर गद्दाफी की हत्‍या की निंदा करते हुए सैन्‍य तानाशाह की मौत को लेकर पूरे मामले की जांच किए जाने की मांग की है. ख़बरों के मुताबिक श्रीलंका के विदेश मंत्रालय की ओर से कड़े शब्‍दों में जारी बयान में कहा है कि श्रीलंका की सरकार गद्दाफी की मौत से जुड़े हालात पर सफाई चाहती है. गद्दाफी की श्रीलंका से पुरानी दोस्‍ती रही है.
>ख़बरों में बताया गया है कि सिरते में जिस वक्‍त एनटीसी के लड़ाकों ने गद्दाफी को पकड़ा, उस वक्‍त सैन्‍य तानाशाह ने लड़ाकों को जान बख्‍शने के एवज में काफी मात्रा में धन-दौलत देने का वादा किया.  हमाद मुफ्ती अली नाम के एक लड़ाके ने बताया कि गद्दाफी अपनी जान के एवज में कुछ भी देने के लिए तैयार था. उसने कहा कि उसके पास काफी सोना और धन दौलत है.
>आखिर जनता के विद्रोह ने एक तानाशाह से मुक्ति पा ही ली. गद्दाफी ने लगभग 42 वर्ष तक लीबिया पर शासन किया. इस दौरान उसने अपने देश की जनता पर कई तरह के अत्याचार किये. यहाँ तक कि उन औरतों को भी बक्शा नहीं गया जो निरंतर उसकी सुरक्षा में तैनात रहा करती थीं. उनके साथ बलात्कार तक किये गए. अपने शासन के दौरान गद्दाफी ने अपार धन -दौलत एकत्र की. लेकिन, अंतिम समय इस धन - दौलत ने उसका साथ ना दिया. उसने लड़ाकों को धन-दौलत देने का लालच दिया. लेकिन, किसी ने उसकी एक ना सुनी. अंत में, गद्दाफी का जो हश्र हुआ उसके बारे में सभी जानते ही हैं. 
>हर तानाशाह का एक दिन अंत होता है. और अंत भी बहुत बुरा होता है. इतिहास खोल कर देखा जाये तो सभी तानाशाहों का गद्दाफी जैसा ही अंत होता है. जनता में जब तानाशाही के प्रति रोष उत्पन्न होता है तो तानाशाही और तानाशाह का अंत होता ही है. सत्ता में बैठा तानाशाह ये समझ बैठता है कि इस धरती पर वह इंसान नहीं, भगवान् है और शेष लोग तो कीड़े-मकौड़े भर हैं. लेकिन, गद्दाफी जैसा तानाशाह अंत में ऐसी स्थिति में होता है कि अपनी भूल सुधारने लायक तो क्या माफ़ी के काबिल भी नहीं रहता. 
>गद्दाफी की मौत उन शासकों के लिए सबक है जो अपने अधीन प्रजा पर अत्याचार करते हैं.  बेशक गद्दाफी के खात्‍मे के तरीके को लेकर जांच किए जाने की अंतरराष्‍ट्रीय मंच पर मांग उठ रही है. लगता नहीं कि ऐसी मांगों का अब कोई औचित्य शेष रह गया है. ऐसी मांग उठाने वाले तब कहाँ थे जब गद्दाफी की तानाशाही जारी थी और लीबिया की जनता पिस रही थी, जुल्म सह रही थी? ये जनता का गुस्सा ही था कि गद्दाफी की जान बख्शने के हक में कोई भी नहीं था. उसे गली में घूम रहे किसी आवारा कुत्ते की मौत ही मार दिया गया. ऐसी मौत जो दर्दनाक थी......बिलकुल वैसी ही, जैसे उसने भी ना जाने कितने लीबियावासियों को दी होगी.
>अंत में?
>क्या गद्दाफी के खात्‍मे के तरीके को लेकर जांच किए जाने की अंतरराष्‍ट्रीय मंच पर की जा रही मांग में अब कोई औचित्य शेष रह गया है.   

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

सुविधाओं का अभाव क्यों?

>शिमला की रोपा पंचायत के लढैर (कुई नाला) गांव से एक बेहद दर्दनाक खबर पढने को मिली है. इस खबर के मुताबिक एक गर्भवती महिला की सड़क सुविधा न होने के कारण मौत हो गई है. खबर में बताया गया है कि 21 वर्षीय रीना कुमारी को अचानक प्रसव पीड़ा शुरू हो गई. सड़क की हालत बेहद खराब होने के कारण एंबुलेंस गांव तक नहीं पहुंच सकी और युवती ने दम तोड़ दिया. हालांकि महिला की नवजात बच्ची स्वस्थ है। रोपा पंचायत के प्रधान रतन चंद भारती का कहना है कि पंचायत ने कई बार प्रस्ताव भेज कर सड़क बनाने की मांग की, लेकिन अब तक सड़क नहीं बन पाई है.
>ये बेहद संगीन मामला है. ऐसी कई घटनाएँ देश के अन्य कोनों में भी घटित होती होंगी. मगर, सभी घटनाएँ मीडिया में नहीं आ पाती हैं. सवाल तो ये उठता है कि ऐसी घटनाएँ होती ही क्यों हैं. आज़ादी के बाद भी अगर ऐसी घटनाएं हो रही हैं तो यह बहुत शर्मनाक बात है. देश की जनता से तरह - तरह के कर वसूल किये जाते हैं. बदले में सुविधाएं भी जनसामान्य को उपलब्ध नहीं की जाती. इसके लिए किस की जवाबदेही है. आखिर रीना कुमारी का क्या क्या कसूर था कि उसे अपनी जान गंवानी पड़ी. क्या उसका दोष यही था कि उसे एक ऐसे गाँव में रहना पड़ रहा था जहाँ सुविधाओं का अभाव था. 
>होना तो ये चाहिए कि जिस भी अधिकारी ने गैरजिम्मेवाराना रवैया दिखाते हुए पंचायत के सड़क बनाने के प्रस्तावों की बार-बार अनदेखी की है,  उसके  के  विरुद्ध  प्रशासनिक कार्रवाई  की  जानी  चाहिए  और  सड़क का जल्द से जल्द निर्माण करना चाहिए ताकि किसी अन्य रीना को अपने जीवन का बलिदान ना देना पड़े. इस सड़क का निर्माण करके इसका नाम रीना कुमारी के नाम पर रख देना चाहिए. अब तो यही रीना कुमारी को श्रधांजलि हो सकती है. 
>देश के प्रशासनिक अधिकारियों को भी अपनी जिम्मेवारी समझते हुए अपने - अपने क्षेत्रों की एक सूची तयार करनी चाहिए कि किन क्षेत्रों में सुविधायों की कमी है ताकि उन्हें ठीक किया जा सके.  अधिकारी भी केवल सरकारी संसाधनों पर ही निर्भर ना रहें. उन्हें अपने तौर पर प्रयास करने चाहियें कि कॉरपोरेट सेक्टर व् अन्य दानी सज्जनों का सहयोग भी हासिल करें ताकि सुविधायों का कहीं भी अभाव ना रहे. देश में अनगिनत ऐसे लोग हैं जो खुले दिल से समाज सेवा के लिए हर पल तैयार रहते हैं.
>अंत में:
>क्या  प्रशासनिक अधिकारियों को अपने क्षेत्रों में सुविधायों का अभाव दूर करने के लिए निजी तौर पर प्रयास करने चाहियें?